कहानजैनशास्त्रमाळा ]
द्रव्यकर्मनिमित्तानां भावानाम् हेतुताम् एति’’ (अज्ञानी) मिथ्याद्रष्टि जीव, (द्रव्यकर्म) जे धाराप्रवाहरूप निरन्तर बंधाय छे – पुद्गलद्रव्यना पर्यायरूप कार्मणवर्गणा ज्ञानावरणादि कर्मपिंडरूप बंधाय छे, जीवना प्रदेशो साथे एकक्षेत्रावगाही छे, परस्पर बन्ध्य-बन्धकभाव पण छे, — तेमनां (निमित्तानां) बाह्य कारणरूप छे (भावानाम्) मिथ्याद्रष्टिना मिथ्यात्व-राग-द्वेषरूप जे अशुद्ध परिणाम, [भावार्थ आम छे के – जेम कळशरूपे मृत्तिका परिणमे छे, जेम कुंभारना परिणाम तेनुं बाह्य निमित्त कारण छे, व्याप्य-व्याप्यकरूप नथी तेम ज्ञानावरणादिक कर्मपिंडरूप पुद्गलद्रव्य स्वयं व्याप्य-व्याप्यकरूप छे, तोपण जीवना अशुद्ध चेतनारूप मोह- राग-द्वेषादि परिणाम बाह्य निमित्तकारण छे, व्याप्य-व्याप्यकरूप तो नथी.] ते परिणामोना
जाणशे के ‘जीवद्रव्य तो शुद्ध छे, उपचारमात्र कर्मबंधनुं कारण थाय छे,’ परंतु एम तो नथी. पोते स्वयं मोह-राग-द्वेष — अशुद्धचेतनापरिणामरूप परिणमे छे तेथी कर्मनुं कारण छे. मिथ्याद्रष्टि जीव अशुद्धरूप जे रीते परिणमे छे ते कहे छे — ‘‘अज्ञानमयभावानाम् भूमिकाः प्राप्य’’ (अज्ञानमय) मिथ्यात्वजातिरूप छे (भावानाम्) कर्मना उदयनी अवस्था तेमनी, (भूमिकाः) जेने पामतां अशुद्ध परिणाम थाय छे एवी संगतिने (प्राप्य) पामी मिथ्याद्रष्टि जीव अशुद्ध परिणामरूपे परिणमे छे. भावार्थ आम छे के — द्रव्यकर्म अनेक प्रकारनुं छे, तेनो उदय अनेक प्रकारनो छे. एक कर्म एवुं छे जेना उदये शरीर थाय छे, एक कर्म एवुं छे जेना उदये मन- वचन-काय थाय छे, एक कर्म एवुं छे जेना उदये सुख-दुःख थाय छे. आम अनेक प्रकारनां कर्मोनो उदय होतां मिथ्याद्रष्टि जीव कर्मना उदयने पोतारूप अनुभवे छे, तेनाथी राग-द्वेष-मोहपरिणाम थाय छे, तेमनाथी नूतन कर्मबंध थाय छे. तेथी मिथ्याद्रष्टि जीव अशुद्ध चेतन परिणामनो कर्ता छे. जेथी मिथ्याद्रष्टि जीवने शुद्ध स्वरूपनो अनुभव नथी तेथी कर्मना उदय-कार्यने पोतारूप अनुभवे छे. जेम मिथ्याद्रष्टिने कर्मनो उदय छे तेम ज सम्यग्द्रष्टिने पण छे; परन्तु सम्यग्द्रष्टि जीवने शुद्ध स्वरूपनो अनुभव छे तेथी कर्मना उदयने कर्मजातिरूप अनुभवे छे, पोताने शुद्धस्वरूप अनुभवे छे; तेथी कर्मना उदयमां रंजित थतो नथी, तेथी मोह-राग-द्वेषरूप परिणमतो नथी, तेथी कर्मबंध थतो नथी. तेथी सम्यग्द्रष्टि अशुद्ध परिणामनो कर्ता नथी. — आवो विशेष छे. २३