६८ ]
स्वरूपगुप्ता निवसन्ति नित्यम् ।
स्त एव साक्षादमृतं पिबन्ति ।।२४-६९।।
खंडान्वय सहित अर्थः — ‘‘ये एव नित्यम् स्वरूपगुप्ताः निवसन्ति ते एव साक्षात् अमृतं पिबन्ति’’ (ये एव) जे कोई जीव (नित्यम्) निरन्तर (स्वरूप) शुद्ध चैतन्यमात्र वस्तुमां (गुप्ताः) तन्मय थया छे — (निवसन्ति) एवा थईने रहे छे (ते एव) ते ज जीवो (साक्षात् अमृतं) अतीन्द्रिय सुखनो (पिबन्ति) आस्वाद करे छे. शुं करीने? ‘‘नयपक्षपातं मुक्त्वा’’ (नय) द्रव्य-पर्यायरूप विकल्पबुद्धि तेना (पक्षपातं) एक पक्षरूप अंगीकारने (मुक्त्वा) छोडीने. केवा छे ते जीव? ‘‘विकल्पजालच्युतशान्तचित्ताः’’ (विकल्पजाल) एक सत्त्वनो अनेकरूप विचार तेनाथी (च्युत) रहित थयुं छे (शान्तचित्ताः) निर्विकल्प समाधानरूप मन जेमनुं, एवा छे. भावार्थ आम छे के – एक सत्त्वरूप वस्तु छे तेने, द्रव्य-गुण-पर्यायरूप, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप विचारतां विकल्प थाय छे, ते विकल्प थतां मन आकुळ थाय छे, आकुळता दुःख छे; तेथी वस्तुमात्र अनुभवतां विकल्प मटे छे, विकल्प मटतां आकुळता मटे छे, आकुळता मटतां दुःख मटे छे. तेथी अनुभवशील जीव परम सुखी छे. २४ – ६९.
चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ ।
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ।।२५-७०।।
खंडान्वय सहित अर्थः — ‘‘चिति द्वयोः इति द्वौ पक्षपातौ’’ (चिति)