Samaysar Kalash Tika-Gujarati (Devanagari transliteration). Shlok: 89-90.

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समयसार-कलश
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

अर्थःजीव वेद्य (-वेदावायोग्य, जणावायोग्य) छे एवो एक नयनो पक्ष छे अने जीव वेद्य नथी एवो बीजा नयनो पक्ष छे; आम चित्स्वरूप जीव विषे बे नयोना बे पक्षपात छे. जे तत्त्ववेदी पक्षपातरहित छे तेने निरन्तर चित्स्वरूप जीव चित्स्वरूप ज छे. ४३८८.

(उपजाति)
एकस्य भातो न तथा परस्य
चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ
यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपात-
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव
।।४४-८९।।

अर्थःजीव ‘भात’ (प्रकाशमान अर्थात् वर्तमान प्रत्यक्ष) छे एवो एक नयनो पक्ष छे अने जीव ‘भात’ नथी एवो बीजा नयनो पक्ष छे; आम चित्स्वरूप जीव विषे बे नयोना बे पक्षपात छे. जे तत्त्ववेदी पक्षपातरहित छे तेने निरन्तर चित्स्वरूप जीव चित्स्वरूप ज छे (अर्थात् तेने चित्स्वरूप जीव जेवो छे तेवो निरन्तर अनुभवाय छे).

भावार्थःबद्ध अबद्ध, मूढ अमूढ, रागी अरागी, द्वेषी अद्वेषी, कर्ता अकर्ता, भोक्ता अभोक्ता, जीव अजीव, सूक्ष्म स्थूल, कारण अकारण, कार्य अकार्य, भाव अभाव, एक अनेक, सान्त अनन्त, नित्य अनित्य, वाच्य अवाच्य, नाना अनाना, चेत्य अचेत्य, द्रश्य अद्रश्य, वेद्य अवेद्य, भात अभात इत्यादि नयोना पक्षपात छे. जे पुरुष नयोना कथन अनुसार यथायोग्य विवक्षापूर्वक तत्त्वनोवस्तुस्वरूपनो निर्णय करीने नयोना पक्षपातने छोडे छे ते पुरुषने चित्स्वरूप जीवनो चित्स्वरूपे अनुभव थाय छे.

जीवमां अनेक साधारण धर्मो छे परंतु चित्स्वभाव तेनो प्रगट अनुभवगोचर असाधारण धर्म छे तेथी तेने मुख्य करीने अहीं जीवने चित्स्वरूप कह्यो छे. ४४८९.

(वसंततिलका)
स्वेच्छासमुच्छलदनल्पविकल्पजाला-
मेवं व्यतीत्य महतीं नयपक्षकक्षाम्
अन्तर्बहिः समरसैकरसस्वभावं
स्वं भावमेकमुपयात्यनुभूतिमात्रम्
।।४५-९०।।