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[ सत्तास्वरूप
त्यां जे शास्त्राभ्यास द्वारा तत्त्वनिर्णय तो नथी करता
अने विषयकषायनां कार्योमां ज मग्न छे ते तो
अशुभोपयोगीमिथ्याद्रष्टि छे तथा जे सम्यग्दर्शन विना पूजा,
दान, तप, शील, संयमादि व्यवहारधर्ममां मग्न छे ते
शुभोपयोगीमिथ्याद्रष्टि छे. माटे तमे भाग्यउदयथी
१मनुष्यपर्याय पाम्या छो तो सर्वधर्मनुं मूळ कारण सम्यग्दर्शन
अने तेनुं मूळ कारण तत्त्वनिर्णय तथा तेनुं पण मूळ कारण
शास्त्राभ्यास, ते अवश्य करवा योग्य छे, पण जे आवा
अवसरने व्यर्थ गुमावे छे तेमना उपर बुद्धिमान करुणा करे
छे; कह्युं छे के –
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प्रज्ञैव दुर्लभा सुष्ठु दुर्लभा सान्यजन्मने ।
तां प्राप्य ये प्रमाद्यन्ति ते शोच्याः खलु धीमत्ताम् ।।९४।।
(आत्मानुशासन)
तेथी जेने साचा जैनी थवुं छे, तेणे तो शास्त्रना आश्रये
तत्त्वनिर्णय करवो योग्य छे, पण जे तत्त्वनिर्णय तो नथी करतो
अने पूजा, स्तोत्र, दर्शन, त्याग, तप, वैराग्य, संयम, संतोष
आदि बधांय कार्यो करे छे तेनां ए बधांय कार्यो असत्य छे.
१. मनुष्यपर्याय = पर्यायमनुष्यनुं शरीर, मनुष्यभव.
✽अर्थ : — आ संसारमां बुद्धि होवी ज दुर्लभ छे, अने परलोक
अर्थे बुद्धि थवी तो अति दुर्लभ छे. एवा बुद्धि प्राप्त थवा छतां
जेओ प्रमाद करे छे ते जीवो विषे ज्ञानीओने शोच थाय छे.