Sattasvarup-Gujarati (Devanagari transliteration).

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१० ]
[ सत्तास्वरूप
त्यां सर्वज्ञने व्यवहारनिश्चयरूप बे प्रकारनी कथनीना
आश्रयथी बे जातिना गुणो होय छे, वा बाह्यअभ्यंतरपणाथी
गुण बे प्रकारना छे, अथवा निःश्रेयस अने अभ्युदयना
भेदथी गुण बे प्रकारना छे, वळी वचनविवक्षाथी गुण
संख्याता होय छे, तथा वस्तुस्वरूपनी अपेक्षाए अनंतगुण होय
छे, तेने सत्यार्थज्ञान वडे यथावत् जाणतां स्वरूप भासशे.
कारण के आ जीव, अनादिकाळथी संसारमां भमतो
मिथ्याबुद्धि वडे पर्यायना प्रपंचने सत्यरूप जाणी तेमां मग्न
थयो थको प्रवर्ते छे. परंतु दुःखनी पीडा तो बनी ज (कायम
ज) रहे छे तेनाथी तरफडी तरफडी अनेक उपाय करे छे, परंतु
आकुलता
इच्छारूप जे दुःख ते तो अंशमात्र पण घटतुं नथी.
जेम मृगीनो रोग कोई वेळा तो घणो प्रगट थाय तथा कोई
वेळा थोडो प्रगट थाय, पण अंतरंगमां तो रोग हमेशां कायम
रह्या करे छे; ज्यारे ए रोगीने पुण्योदयरूप काळलब्धि आवे,
पोताना उपायथी सिद्धि न थती जाणे अने तेने (ए उपायोने)
जूठा माने त्यारे ते साचो उपाय करवानो अभिलाषी थाय. ‘हवे
१. निःश्रेयस = मोक्ष. (नितरां श्रेयः निश्चितं श्रेयः = अत्यंत
कल्याण, निश्चय कल्याण).
२. अभ्युदय = पुण्यनो ठाठ.
३. वचनविवक्षा = वचनथी कहेवाय एवा.
४. पर्याय = शरीर.
५. प्रपंच = विस्तार.
६. वायनो रोग.