Sattasvarup-Gujarati (Devanagari transliteration).

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२४ ]
[ सत्तास्वरूप
केपरपुरुषनी अपेक्षाए निजभरथार प्रत्ये अधिक रसस्वरूप
कार्य थवाथी ज शीलवानपणुं रहे छे. ए ज प्रमाणे कुदेवादिकना
संबंध करतां सुदेवादिकना संबंधमां साचा रसरूप वधतां कार्यो
थतां ज धर्मात्मापणुं आवशे.
वळी, तमे कहेशो केः‘अमने विशेष फळ तो कांई
भास्युं नथी.’ तेनुं समाधानःअन्य देवादिकथी तमने शुं फळ
थयुं छे ते कहो! तेमनुं सेवन करी बताव्यां ते फळो जो
तेमनाथी थया होय तो बतावी द्यो अथवा;
आर्तध्यान सिवाय
बीजुं कंई फळ थयुं होय तो युक्ति द्वारा पण बतावी द्यो! एना
करतां साचा देवादिकथी तो जे फळ थाय छे तेनुं वर्णन, फळ,
निश्चयप्रकरणमां लखीशुं.
धननुं आगमन, शरीरनी निरोगता, पुत्रादिकनो लाभ,
इष्ट सामग्रीनी प्राप्ति, पुत्रस्त्री आदिनी जीवनवांच्छा, सुंदर
स्त्रीनो संबंध मळवो, अने विवाहादि कार्योमां विघ्न न थवां
इत्यादि कार्यो वास्ते तुं अन्य देवादिकने पूजे छे वा विनयादि
करे छे, त्यां अमे पूछीए छीए के
अन्यदेवादिकथी ए इष्ट
कार्योनी प्राप्ति अवश्य थशे एवो स्वाश्रित वा पराश्रितपणे
निश्चय तमे केवी रीते कर्यो छे, के जेथी तमने तेनी प्रबळ आस्था
अने आशा छे ते कहो! प्रत्यक्षथी, अनुमानथी वा देश-परदेशनी
वातोथी निश्चय करी आव्या छो तो अमने पण ए निश्चय करावी
१. आर्तध्यान = दुःखमय थवाथी थवावाळुं ध्यान; इष्टानिष्ट
संयोग-वियोगनी प्राप्तिअप्राप्ति विषे थती माठी चिंता.