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[ सत्तास्वरूप
ज्यारे शीतलाने पूजतां – पूजतां पुत्र मरी जाय त्यारे
तेओ कहे छे के – ‘प्राणीनी आयुस्थिति होय तेटली ज ते
भोगवे छे एक पळ पण आगळ – पाछळ थई शकती नथी,
शीतला शुं करे! आ तो पूजादिकनो व्यवहार बनावी राख्यो
छे’, परंतु एमां तो जगतना कहेवामां पण जीवन-मरण,
सुख – दुःख, लाभ – अलाभ, आदिना मूळमां तो कर्म, आयुष्य,
शाता – अशाता वा १अंतरायादिकनुं अनुकूळपणुं – प्रतिकूळपणुं ज
प्रबळ कारण थई रह्युं. माटे सत्यार्थद्रष्टि वडे निर्णय करीने
सर्व संकल्प छोडी पोताना सुदेवमां ज २आस्तिक्यबुद्धि लाववी
योग्य छे. ‘कार्य तो कर्मना उदय आश्रित जे थवानुं छे ते ज
थशे.’ एवो निश्चय राखवो योग्य छे पण धर्म छोडवाथी
इष्टनी प्राप्ति थवी संभवती नथी, अन्य मतवाळा पण ए ज
प्रमाणे कहे छे के —
पोतपोताना इष्टने नमन करे सौ कोई,
इष्ट विहुणा परशराम नमें ते मूरख होय;
वळी, ते कहे छे के – ‘जे साचा अंतःकरणथी पूजे छे
तेमने तो इष्टफळनी प्राप्ति थाय छे ज.’ तेने उत्तर – ज्यां कर्मना
उदयथी इष्टनी प्राप्ति थाय छे त्यां तो तुं तेने कुदेवादिकनी करी
बतावे छे तथा ज्यां इष्टनी प्राप्ति नथी थती वा अनिष्टनी
१. अंतराय = विघ्न करवामां निमित्त थतुं कर्म.
२. आस्तिक्यबुद्धि = विश्वास, भरोसानो भाव.