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[ सत्तास्वरूप
ते तो अज्ञानी शुभोपयोगी छे, अने जे तेने सत्यस्वरूप वा
सत्यमार्गना दर्शाववावाळा जाणे छे – पोतानुं भलुं – बूरूं थवुं
पोताना परिणामोथी माने छे, ते रूपे पोते प्रवर्ते छे तथा
अशुभकार्योने छोडे छे ते जिनदेवना साचा सेवक छे.
त्यां जेणे जिनदेवना सेवक थवुं होय वा जिनदेवे
उपदेशेला मार्गरूप प्रवर्तवुं होय तेणे सर्वथी पहेलां जिनदेवना
साचा स्वरूपनो पोताना ज्ञानमां निर्णय करी तेनुं श्रद्धान करवुं,
त्यां देवनुं त्रण दोष रहित मूळ लक्षण निर्दोष गुण छे, कारण
के – ‘निर्दोष देव’ एवुं वाक्य छे. ‘देव’ नाम पूज्य वा सराहवा
(अनुमोदवा; वखाणवा) योग्य छे. हवे अहीं देवनो निश्चय
करवो छे, ते देव, जीव छे. तेथी जीवमां होय एवा दोष सर्व
प्रकारथी जेना दूर थया छे ते ज जीव पूज्य वा श्लाध्य
(प्रसंशवा योग्य) छे. तेने ज ‘देव’ संज्ञा छे, जेम लौकिकमां
हीरा – सुवर्णादिकमां कांई दोष होय तो तेथी तेनी किंमत घटी
जाय छे, ते ज प्रमाणे जीवने नीचो दर्शाववावाळा वा तेनी
निंदा कराववावाळा अज्ञान – रागादिक दोष छे, तेनाथी ज
जीवनी हीनता थाय छे.
कारण के – सारां सारां कपडां पहेर्यां होय, रूपाळी
मुखमुद्रा होय, उत्तम कुळनो होय, अने आभूषणादिक पहेर्यां
होय पण जो बुद्धि थोडी होय वा १विपरीत होय वा क्रोध –
मान – माया – लोभादि कषायसहित होय तो जगत तेनी निंदा ज
१. विपरीत = उलटुं.