सत्तास्वरूप ][ ४९
रोगने मटाडवा इच्छे छे, ए प्रमाणे रोगाभावइच्छा प्रबल
थतां कषायइच्छा गौण थई जाय छे.
वळी भूख लागे, तरस लागे, शीतता लागे, गरमी लागे
तथा पीडा इत्यादि रोग उत्पन्न थई जाय त्यारे सारी
-नरसी, मीठी – खारी अने खाद्य – अखाद्यनो पण विचार करतो
नथी, बूरी अखाद्य वस्तुने भक्षण करीने पण रोग मटाडवा
इच्छे छे. जेम पथ्थर वा वाडना कांटा वगेरे खाईने पण भूख
मटाडवा इच्छे छे, ए प्रमाणे रोगाभावइच्छा थतां भोगइच्छा
गौण थई जाय छे.
एवी रीते एक काळमां एक इच्छानी मुख्यता रहे छे
अने अन्य इच्छानी गौणता थई जाय छे, परंतु मूळमां तो
इच्छा नामनो रोग सदाय कायम रहे छे.
जेने नवीन नवीन विषयोनी इच्छा छे तेने दुःख,
स्वभावथी ज थाय छे, जो दुःख मटी गयुं होय तो ते नवीन
विषयो अर्थे व्यापार शा सारुं करे? ए ज वात श्री
प्रवचनसारमां कही छे केः —
✽
जेसिं विसयेसु रदी तेसिं दुक्खं वियाण सब्भावं ।
जइ तं ण हि सब्भावं वावारो णत्थि विसयत्थं ।।६४।।
(श्री प्रवचनसार – अधि – १)
✽अर्थ : — जे जीवोने इन्द्रियविषयोमां प्रीति छे तेमने दुःख
स्वाभाविक ज जाण; कारण के जो तेमने स्वाभाविक दुःख न
होय तो तेमने विषय सेवन अर्थे व्यापार पण न होय.