थवुं उत्तरोत्तर महा दुर्लभ छे, कदाचित् तेनी पण प्राप्ति थई
जाय तो मिथ्याधर्मवासनानो अभाव तथा तेनाथी बच्या
रहेवारूप कार्य अत्यंत दुर्लभ छे, वळी तेनाथी पण बची जाय
तो
समान जैनधर्ममां पण प्रतीति तेनाथी बचवुं महा दुर्लभ छे,
कदापि तेनाथी बचवुं बनी जाय तो कुलक्रमथी अने पंचायतिना
भयथी मिथ्यादेवादिकोथी बचवुं बनी जाय तो मोटुं भाग्य!
परंतु साचादेवादिकनी तेवी यथावत् विनयादिरूप प्रवृत्ति न थई.
वळी त्यां पण कोई जीव तो पोताना ज्ञानमां निर्णय कर्या विना
ज अज्ञानीसाधर्मीना संगमां मग्न बनी (तेनो) विनय वा
उज्जवलता वधारवावाळी द्रव्यरूप पूजा-तप
-त्याग आदि बाह्यक्रियामां ज निमग्न थई रहे छे. वळी कोईक
जीव, वक्ताना उपदेश आदि कथनथी स्वरूप निर्णय पण करे
छे; त्यां पोताना ज्ञानमां आगमना आश्रयथी ते
छे पण युक्ति
निश्चय करी वस्तुस्वरूपनो निर्णय थयो मानी ले छे, पण
२. शिक्षा = उपदेश.