Sattasvarup-Gujarati (Devanagari transliteration).

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५८ ]
[ सर्वज्ञ सत्तास्वरूप
निकट दर्शनपूजन इत्यादिनुं करवुं, तथा भक्तिरूप वा
आस्तिक्यतारूप परिणामोनुं थवुं, इत्यादि उत्तरोत्तर महादुर्लभ
छे; छतां आ काळमां पण महाभाग्यना उदयथी ए बधी वातो
प्राप्त थई छे.
पण हवे तमने पूछीए छीए केतमे हमेशां मंदिरमां
आवो छो त्यां तमे मंदिरमां जे प्रतिमाजी बिराजे छे, तेने
ज देव जाणी संतुष्ट थई रह्या छो के तमने प्रतिमाजीनो
नानो
मोटो आकार, वर्ण वा पद्मासनकार्योत्सर्गासन आदि
ज देखाय छे, के जेनी आ प्रतिमा छे तेनुं पण (कांई)
स्वरूप भास्युं छे? ते तमे तमारा चित्तमां विचारी जुओ.
जो नथी भास्युं तो ज्ञान विना कोनुं सेवन करो छो? तेथी
तमारे जो पोतानुं भलुं करवुं छे तो सर्व आत्महितनुं मूळ
कारण जे ‘आप्त’ तेनो साचो स्वरूपनिर्णय करी ज्ञानमां
लावो. कारण के
सर्व जीवोने सुख प्रिय छे, सुख कर्मोना
नाशथी थाय छे, कर्मनो नाश सम्यक्चारित्रथी थाय छे,
सम्यक्चारित्र, सम्यग्दर्शन
ज्ञानपूर्वक थाय छे, सम्यग्ज्ञान
आगमथी थाय छे, आगम कोई वीतरागपुरुषनी वाणीथी
उपजे छे अने ए वाणी कोई वीतरागपुरुषना आश्रये छे,
माटे जे सत्पुरुष छे तेमणे पोताना कल्याण अर्थे सर्व सुखनुं
मूळकारण जे आप्तअर्हंत सर्वज्ञ तेनो युक्तिपूर्वक सारी रीते
सर्वथी प्रथम निर्णय करी (तेमनो) आश्रय लेवो योग्य छे.
कह्युं छे केः