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[ सर्वज्ञ सत्तास्वरूप
प्रवर्ते छे अने आत्महितना मूळ आधारभूत जे अर्हंतदेव,
तेनो निर्णय कर्या विना ज तमे प्रवर्तो छो ए मोटुं आश्चर्य
छे! वळी तमने निर्णय करवा योग्य ज्ञान पण भाग्यथी
प्राप्त थयुं छे माटे तमे आ अवसरने वृथा न गुमावो.
आळस आदि छोडी तेना निर्णयमां पोताने लगावो के जेथी
तमने वस्तुनुं स्वरूप, जीवादिकनुं स्वरूप, स्व – परनुं
१भेदविज्ञान, आत्मानुं स्वरूप, हेय – उपादेय अने शुभ –
अशुभ शुद्ध अवस्थारूप पोताना पद – अपदनुं स्वरूप ए
बधानुं सर्व प्रकारथी यथार्थज्ञान थाय. माटे सर्व मनोरथ सिद्ध
थवानो उपाय जे अर्हंतसर्वज्ञनुं यथार्थज्ञान जे प्रकारथी थाय
ते प्रथम करवा योग्य छे. कह्युं छे केः —
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जो जाणदि अरहंतं दव्वत्तगुणत्तपज्यत्तेहिं ।
सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्य लयं ।।८०।।
अर्थ : — जे द्रव्य – गुण – पर्यायो वडे अर्हंतने जाणे छे
ते ज आत्माने यथार्थ जाणे छे अने तेना ज मोहनो नाश थाय
छे. कारण के – जे अर्हंतनुं स्वरूप छे ते ज पोतानुं स्वरूप छे
पण विशेषता एटली छे, के तेओ पहेला अशुद्ध हता अने
१. भेदविज्ञान = आत्मा अने जडनी जुदाईनुं भान.
✽अर्थ : — जे जीव अर्हंत भगवानने द्रव्यपणे, गुणपणे ने
पर्यायपणे जाणे छे, ते (पोताना) आत्माने जाणे छे; अने तेनो
मोह खरेखर नाश पामे छे.