साची रही जाशे तो एमां मतपक्षरूप परस्पर व्याघात थशे,
तथा जो न्यायमां प्रमाण द्वारा तेनाथी सिद्ध न करवामां आवे
तो अमारी सिद्धि जूठ्ठी पडी. माटे अमने जेम (तेनी सिद्धि)
भासी छे तेवी तमने प्रमाण द्वारा सिद्ध करावी आपशुं, त्यारे
तमारो परसंबंधि ज्ञापकानुपलंभ नामनो हेतु सर्वज्ञनी नास्ति
साधवामां जूठो पड्यो. माटे तमारे परनी अपेक्षाए सर्वज्ञनी
नास्ति मानवी योग्य नथी. ए ज वात श्री श्लोकवार्तिकजीमां
कही छे. यथाः
सर्वज्ञनी नास्ति कहीए छीए’ तेने पूछीए छीए के
आपवामां आवे तो ताराथी अन्य व्यक्ति तो हुं पण छुं के जेने
सर्वज्ञने जणावनारुं प्रमाण उपलब्ध छे. ए रीते अन्य
व्यक्तिओनी मान्यतामां परस्पर व्याघात थतो होवाथी अन्य
व्यक्तिनी मान्यता द्वारा पण सर्वज्ञनो अभाव थतो नथी.