सर्वज्ञ सत्तास्वरूप ][ ७१
शुं मिथ्या ज छे? तेनो उत्तर श्री श्लोकवार्तिकजीमां आ प्रमाणे
कह्यो छे के —
✽
‘मिथ्याज्ञानं प्रमाणं न सम्यगित्यधिकारतः’ ।।३८।।
(प्र. अ. पानुं १७०)
मिथ्याज्ञान तो सर्वथा प्रमाणरूप छे ज नहि, कारण के
शास्त्रोमां तो सम्यग्ज्ञाननी ज प्रमाणता कही छे. त्यां जे
प्रकरणमां जे जातिना ज्ञेयना ज्ञानने बाधा न लागे ते प्रमाणना
प्रकरणमां ते प्रकारथी ते ज्ञेयना ज्ञानने सम्यग्ज्ञान ज कहीए
छीए. कारण के मिथ्याज्ञानथी तो कार्य सिद्धि थती नथी, कारण
के – एकेंद्रियादिथी पंचेंद्रिय सुधी सर्व जीवोने पोतपोताना इष्टना
साधकरूप सम्यग्ज्ञान होय छे, माटे केवलज्ञान विना सर्व ज्ञान
मिथ्या ज छे, एम कहेवुं योग्य नथी. पोतपोताना प्रकरणमां
पोतपोताना ज्ञेयसंबंधि साचा जाणपणानुं अल्प वा विशेष ज्ञान
सर्वने होय छे, कारण के – लौकिककार्य तो बधाय जीवो यथार्थ
ज करे छे, तेथी लौकिकसम्यग्ज्ञान तो सर्व जीवोने थोडुं वा घणुं
बनी ज रह्युं छे पण मोक्षमार्गमां प्रयोजनभूत जे आप्त –
आगम आदि पदार्थो, तेनुं साचुं ज्ञान सम्यग्द्रष्टिने ज होय
छे तथा सर्व ज्ञेयनुं ज्ञान केवलीभगवानने ज छे, एम जाणवुं.
✽अर्थ : — सम्यग्ज्ञान प्रमाण छे एवो (शास्त्रमां) अधिकार
होवाथी मिथ्याज्ञान ज प्रमाण नथी. (एम सिद्ध थाय छे.
केवळज्ञान सिवाय अन्यज्ञान अप्रमाण छे, एम नथी.)