Sattasvarup-Gujarati (Devanagari transliteration).

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७२ ]
[ सर्वज्ञ सत्तास्वरूप
वळी लौकिककार्योमां पण ज्यां संशय आदि त्रणे ज्ञान
आवे छे त्यां लौकिककार्यने पण बगाडे ज छे, माटे जो तमारो
सर्वज्ञनी सत्ता आदिना साचा निर्णयनो अभिप्राय छे तो तमारा
ज्ञानमांथी ए त्रणे दोषोने दूर करी पोताना ज्ञानने प्रमाणरूप
करो. त्यारे ते कहे छे के
त्रणदोष रहित प्रमाणज्ञानना केटला
भेद छे, वा अमने कयुं ज्ञान थवा योग्य छे, वा आ प्रकरणमां
कया भेदनुं प्रयोजन पडशे? ते कहो. तेनो उत्तर
प्रमाणज्ञानना १३ भेद छे, केवलज्ञान, मनःपर्ययज्ञान,
अवधिज्ञान, स्पर्शनरसनाघाणचक्षु अने श्रोत्रज्ञान,
स्मृतिज्ञान, प्रत्यभिज्ञान, तर्कज्ञान, अनुमानज्ञान अने
आगमज्ञान आदि, त्यारे ते कहे छे के
तेनुं स्वरूप शुं छे? ते
सामान्यरूपथी अहीं कहेवामां आवे छे तथा विशेषरूपथी
प्रमाणनिर्णयमां लखीशुं.
१. त्यां लोकमां रहेलां जे सर्व द्रव्यो वा अलोकाकाश
तेमनां त्रिकालवर्ती अनंत गुणपर्यायो सहित एक कालमां
यथावत् जाणे, तेनुं नाम केवळज्ञान छे.
२. सरळरूप वा वक्ररूप चिंत्वन करता जीवना चिंतवनने
जाणे, ते ज्ञाननुं नाम मनःपर्ययज्ञान छे.
३. मूर्तिक पुद्गलोना स्कंधने वा सूक्ष्मपरमाणुओने एक
काळमां एक ज्ञेयने तेना (ज्ञेयना) द्रव्य, क्षेत्र, कालनी
मर्यादासहित स्पष्ट जाणे, तेनुं नाम अवधिज्ञान छे.