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[ सर्वज्ञ सत्तास्वरूप
ज हतो. हवे फरी तेने (अमे) पूछीए छीए के – तमे सर्वज्ञनी
नास्ति कहो छो तो ते कोई क्षेत्र – काळनी अपेक्षाथी कहो, तो
ए तो अमे पण मानीए छीए पण जो तमे सर्व क्षेत्र – काळनी
अपेक्षाए सर्वथा नास्ति कहेशो तो तमने अमे कहीए छीए
के – जे सर्वथा अभावरूप होय तेनी वस्तुसंज्ञा केवी रीते थाय?
वा तेनी नामसंज्ञा पण नियमथी न प्रवर्ते; तमे सर्वज्ञनी
अस्तिपूर्वक विधिरूप वाक्य तो कहेता नथी, परंतु तमे तो आम
कहो छो के ‘सर्वज्ञ नथी.’ हवे तमे सर्वज्ञना सर्वथा अभाव
मान्यो तो सर्वज्ञनी संज्ञा कोना आश्रये प्रवर्तशे? न्यायशास्त्रमां
तो आवी मर्यादा छे के – जे सर्वथा अभावरूप होय तेनी संज्ञा
ज होती नथी. जेम कोई नास्तिरूप वचन कहे के – ‘आकाशनुं
फूल नथी’ तो त्यां आम आव्युं के – ‘वृक्षने तो फूल छे’ तेम तमे
लौकिक द्रष्टांत आपो के जेनो सर्वथा अभाव होय, तेनी विधि
वा निषेधमां संज्ञा चाली होय; पण लौकिकमां तो एवुं कोई
द्रष्टांत छे नहि, माटे सर्वथा अभावनी नामसंज्ञा सर्वथा होय
नहि. तेथी तमे ‘सर्वज्ञ’ एवुं वचन कहीने पाछा तेनी
‘नास्ति’रूप वचन कहो छो, ए वात असंभवरूप छे.
श्रीदेवागमस्तोत्रमां पण एम ज कह्युं छे के –
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संज्ञिनः प्रतिषेधो न प्रतिषेध्यादृते क्वचित् ।।२७।।
(आप्तमीमांसा)
✽ अर्थ : — संज्ञावाननो, (नामवाळा पदार्थनो) निषेध, निषेध्य
(निषेधवा योग्य पदार्थ) विना कदी होय नहि.