सर्वज्ञ सत्तास्वरूप ][ ८७
वधारे वधारे मीठी छे, जेने जाणीने स्वजाति एकदेश गुणना
उत्तरोत्तर वृद्धिपणाने साधन बनावी अमृतना संपूर्ण
मीठापणानो निश्चय करीए छीए; अथवा – बाह्याभ्यंतर कारणो
वडे एकदेश दोषनी हानिने साधन बनावीने कोईनामां संपूर्ण
दोषनी हानि साधन वडे साधीए छीए. ए प्रमाणे एकदेशरूप
वानगीथी सर्वदेशवातनो निश्चय करवो ए पण एक अनुमाननी
जाति छे. श्रीदेवागमस्तोत्रमां पण कह्युं छे के —
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दोषावरणयोर्हानिर्निश्देषास्त्यतिशायनात् ।
क्वचिद्यथा स्वहेतुभ्यो बहिरन्तर्मलक्षयः ।।४।।
(आप्तमीमांसा)
अहीं, जीवोने एकदेश आवरण वा रागादिकनी हानि
उत्तरोत्तर वृद्धि – वृद्धिरूप थती जाणी (तेने) साधन बनावी,
कोईने संपूर्ण पण आवरण वा रागादिकनी हानि थई छे, ए
प्रमाणे अनुमानथी सिद्ध कर्युं.
वळी, जे जे ज्ञेय अनुमेय अर्थात् अनुमानमां आववा
योग्य छे ते नियमथी कोईने प्रत्यक्षगोचर अवश्य होय ज. जेम
अग्निआदि छे तेने अनुमानथी पण जाणीए छीए, त्यारे कोई
✽अर्थ : — जेम जीवोने दोष अने आवरणनो घटाडो होय छे,
तेम पोतपोताना कारणे बाह्य अने आंतरिक मळनो (अर्थात्)
आवरणो अने दोषनो) संपूर्ण क्षय अतिशायन हेतुथी (घटतां
घटतां सर्वथा नाश थाय ए हेतुथी) सिद्ध थाय छे.