श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
पूर्वोक्त भावो पर-दरव परभाव, तेथी हेय छे;
आत्मा ज छे आदेय, अंतःतत्त्वरूप निजद्रव्य जे. ५०.
श्रद्धान विपरीत-अभिनिवेशविहीन ते सम्यक्त्व छे;
संशय-विमोह-विभ्रांति विरहित ज्ञान सम्यग्ज्ञान छे. ५१.
चल-मल-अगाढपणा रहित श्रद्धान ते सम्यक्त्व छे;
आदेय-हेय पदार्थनो अवबोध सम्यग्ज्ञान छे. ५२.
जिनसूत्र समकितहेतु छे, ने सूत्रज्ञाता पुरुष जे
ते जाण अंतर्हेतु, द्रग्मोहक्षयादिक जेमने. ५३.
सम्यक्त्व, सम्यग्ज्ञान तेम ज चरण मुक्तिपंथ छे;
तेथी कहीश हुं चरणने व्यवहार ने निश्चय वडे. ५४.
व्यवहारनयचारित्रमां व्यवहारनुं तप होय छे;
तप होय छे निश्चय थकी, चारित्र ज्यां निश्चयनये. ५५.
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४. व्यवहारचारित्र अधिकार
जीवस्थान, मार्गणस्थान, योनि, कुलादि जीवनां जाणीने,
आरंभथी निवृत्तिरूप परिणाम ते व्रत प्रथम छे. ५६.
विद्वेष-राग-विमोहजनित मृषा तणा परिणामने
जे छोडता मुनिराज, तेने सर्वदा व्रत द्वितीय छे. ५७.
नगरे, अरण्ये, ग्राममां को वस्तु परनी देखीने
छोडे ग्रहणपरिणाम जे, ते पुरुषने व्रत तृतीय छे. ५८.
स्त्रीरूप देखी स्त्री प्रति अभिलाषभावनिवृत्ति जे,
वा मिथुनसंज्ञारहित जे परिणाम ते व्रत तुर्य छे. ५९.
श्री नियमसार-पद्यानुवाद ]
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