श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
११. निश्चय-परमावश्यक अधिकार
नथी अन्यवश जे जीव, आवश्यक करम छे तेहने;
आ कर्मनाशनयोगने निर्वाणमार्ग कहेल छे. १४१.
वश जे नहीं ते ‘अवश’, ‘आवश्यक’ अवशनुं कर्म छे;
ते युक्ति अगर उपाय छे, अशरीर तेथी थाय छे. १४२.
वर्ते अशुभ परिणाममां, ते श्रमण छे वश अन्यने;
ते कारणे आवश्यकात्मक कर्म छे नहि तेहने. १४३.
संयत रही शुभमां चरे, ते श्रमण छे वश अन्यने;
ते कारणे आवश्यकात्मक कर्म छे नहि तेहने. १४४.
जे चित्त जोडे द्रव्य-गुण-पर्यायनी चिंता विषे,
तेनेय मोहविहीन श्रमणो अन्यवश भाखे अरे! १४५.
परभाव छोडी, आत्मने ध्यावे विशुद्धस्वभावने,
छे आत्मवश ते साधु, आवश्यक करम छे तेहने. १४६.
आवश्यकार्थे तुं निजात्मस्वभावमां स्थिरता करे;
तेनाथी सामायिक तणो गुण पूर्ण थाये जीवने. १४७.
आवश्यके विरहित श्रमण चारित्रथी प्रभ्रष्ट छे;
तेथी यथोक्त प्रकार आवश्यक करम कर्तव्य छे. १४८.
आवश्यके संयुक्त योगी अंतरात्मा जाणवो;
आवश्यके विरहित श्रमण बहिरंग आत्मा जाणवो. १४९.
जे बाह्य-अंतर जल्पमां वर्ते, अरे! बहिरात्म छे;
जल्पो विषे वर्ते नहीं, ते अंतरात्मा जीव छे. १५०.
वळी धर्मशुक्लध्यानपरिणत अंतरात्मा जाणजे;
ने ध्यानविरहित श्रमणने बहिरंग आत्मा जाणजे. १५१.
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[ शास्त्र-स्वाध्याय