श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
प्रतिक्रमण आदि क्रिया — चरण निश्चय तणुं — करतो रहे,
तेथी श्रमण ते वीतराग चरित्रमां आरूढ छे. १५२.
रे ! वचनमय प्रतिक्रमण, नियमो, वचनमय पचखाण जे,
जे वचनमय आलोचना, सघळुंय ते स्वाध्याय छे. १५३.
करी जो शके, प्रतिक्रमण आदि ध्यानमय करजे अहो!
कर्तव्य छे श्रद्धा ज, शक्तिविहीन जो तुं होय तो. १५४.
प्रतिक्रमण-आदि स्पष्ट परखी जिन-परमसूत्रो विषे,
मुनिए निरंतर मौनव्रत सह साधवुं निज कार्यने. १५५.
छे जीव विधविध, कर्म विधविध, लब्धि छे विधविध अरे !
ते कारणे निजपरसमय सह वाद परिहर्तव्य छे. १५६.
निधि पामीने जन कोई निज वतने रही फळ भोगवे,
त्यम ज्ञानी परजनसंग छोडी ज्ञाननिधिने भोगवे. १५७.
सर्वे पुराण जनो अहो ए रीत आवश्यक करी,
अप्रमत्त आदि स्थानने पामी थया प्रभु केवळी. १५८.
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१२. शुद्धोपयोग अधिकार
जाणे अने देखे बधुं प्रभु केवळी व्यवहारथी;
जाणे अने देखे स्वने प्रभु केवळी निश्चय थकी. १५९.
जे रीत ताप-प्रकाश वर्ते युगपदे आदित्यने,
ते रीत दर्शन-ज्ञान युगपद होय केवळज्ञानीने. १६०.
दर्शन प्रकाशक आत्मनुं, परनुं प्रकाशक ज्ञान छे,
निजपरप्रकाशक जीव, — ए तुज मान्यता अयथार्थ छे. १६१.
श्री नियमसार-पद्यानुवाद ]
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