Shastra Swadhyay-Gujarati (Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


Page 101 of 214
PDF/HTML Page 113 of 226

 

background image
श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
परिणामपूर्वक वचन जीवने बंधकारण थाय छे;
परिणाम विरहित वचन तेथी बंध थाय न ज्ञानीने. १७३.
अभिलाषपूर्वक वचन जीवने बंधकारण थाय छे;
अभिलाष विरहित वचन तेथी बंध थाय न ज्ञानीने. १७४.
अभिलाषपूर्व विहार, आसन, स्थान नहि जिनदेवने,
तेथी नथी त्यां बंध; बंधन मोहवश साक्षार्थने. १७५.
आयुक्षये त्यां शेष सर्वे कर्मनो क्षय थाय छे;
पछी समयमात्रे शीघ्र ते लोकाग्र पहोंची जाय छे. १७६.
कर्माष्टवर्जित, परम, जन्मजरामरणहीन, शुद्ध छे,
ज्ञानादि चार स्वभाव छे, अक्षय, अनाश, अछेद्य छे. १७७.
अनुपम, अतीन्द्रिय, पुण्यपापविमुक्त, अव्याबाध छे,
पुनरागमन विरहित, निरालंबन, सुनिश्चळ, नित्य छे. १७८.
ज्यां दुःख नहि, सुख ज्यां नहीं, पीडा नहीं, बाधा नहीं,
ज्यां मरण नहि, ज्यां जन्म छे नहि, त्यां ज मुक्ति जाणवी. १७९.
नहि इन्द्रियो, उपसर्ग नहि, नहि मोह, विस्मय ज्यां नहीं,
निद्रा नहीं, न क्षुधा, तृषा नहि, त्यां ज मुक्ति जाणवी. १८०.
ज्यां कर्म नहि, नोकर्म, चिंता, आर्तरौद्रोभय नहीं,
ज्यां धर्मशुक्लध्यान छे नहि, त्यां ज मुक्ति जाणवी. १८१.
द्रग-ज्ञान केवळ, सौख्य केवळ, वीर्य केवळ होय छे,
अस्तित्व, मूर्तिविहीनता, सप्रदेशमयता होय छे. १८२.
निर्वाण छे ते सिद्ध छे ने सिद्ध ते निर्वाण छे;
सौ कर्मथी प्रविमुक्त आत्मा लोक-अग्रे जाय छे. १८३.
श्री नियमसार-पद्यानुवाद ]
[ १०१