श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
श्री
अष्टप्राभृत
(पद्यानुवाद)
१. दर्शनप्राभृत
(हरिगीत)
प्रारंभमां करीने नमन १जिनवरवृषभ महावीरने,
संक्षेपथी हुं यथाक्रमे भाखीश दर्शनमार्गने. १.
रे! धर्म २दर्शनमूल, उपदेश्यो जिनोए शिष्यने;
ते धर्म निज कर्णे सुणी दर्शनरहित नहि वंद्य छे. २.
३द्रग्भ्रष्ट जीवो भ्रष्ट छे, द्रग्भ्रष्टनो नहि मोक्ष छे;
चारित्रभ्रष्ट मुकाय छे, द्रग्भ्रष्ट नहि मुक्ति लहे. ३.
सम्यक्त्वरत्नविहीन जाणे शास्त्र बहुविधने भले,
पण शून्य छे आराधनाथी तेथी त्यां ने त्यां भमे. ४.
सम्यक्त्व विण जीवो भले तप उग्र ४सुष्ठु आचरे,
पण लक्ष कोटि वर्षमांये बोधिलाभ नहीं लहे. ५.
ॐ
१. जिनवरवृषभ = तीर्थंकर.
२. दर्शनमूल = सम्यग्दर्शन जेनुं मूळ छे एवो.
३. द्रग्भ्रष्ट = सम्यग्दर्शनरहित.
४. सुष्ठु = सारी रीते.