श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
आत्माय तेम १ससूत्र नहि खोवाय, हो भवमां भले;
२अद्रष्ट पण ते स्वानुभवप्रत्यक्षथी भवने हणे. ४.
जिनसूत्रमां भाखेल जीव-अजीव आदि पदार्थने
हेयत्व-अणहेयत्व सह जाणे, सुद्रष्टि तेह छे. ५.
जिन-उक्त छे जे सूत्र ते व्यवहार ने परमार्थ छे;
ते जाणी योगी सौख्यने पामे, ३दहे मळपुंजने. ६.
४सूत्रार्थपदथी भ्रष्ट छे ते जीव मिथ्याद्रष्टि छे;
५करपात्रभोजन रमतमांय न योग्य होय ६सचेलने. ७.
७हरितुल्य हो पण स्वर्ग पामे, कोटि कोटि भवे भमे,
पण सिद्धि नव पामे, रहे संसारस्थित — आगम कहे. ८.
स्वच्छंद वर्ते तेह पामे पापने मिथ्यात्वने,
गुरुभारधर, उत्कृष्ट सिंहचरित्र, बहुतपकर भले. ९.
८निश्चेल-करपात्रत्व परमजिनेन्द्रथी उपदिष्ट छे;
ते एक मुक्तिमार्ग छे ने शेष सर्व अमार्ग छे. १०.
जे जीव संयमयुक्त ने आरंभपरिग्रहविरत छे,
ते देव-दानव-मानवोना लोकत्रयमां वंद्य छे. ११.
१. ससूत्र = शास्त्रनो जाणनार.
२. अद्रष्ट पण = देखातो नहि होवा छतां (अर्थात् इन्द्रियोथी नहि जणातो
होवा छतां).३.दहे = बाळे.
४. सूत्रार्थपद = सूत्रोनां अर्थो अने पदो.
५. करपात्रभोजन = हाथरूपी पात्रमां भोजन करवुं ते.
६. सचेल = वस्त्रसहित.
७. हरि = नारायण.
८. निश्चेल-करपात्रत्व = वस्त्ररहितपणुं अने हाथरूपी पात्रमां भोजन करवापणुं.
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