श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
बावीश परिषहने सहे छे, १शक्तिशतसंयुक्त जे,
ते कर्मक्षय ने निर्जरामां निपुण मुनिओ वंद्य छे. १२.
२अवशेष लिंगी जेह सम्यक् ज्ञान-दर्शनयुक्त छे
ने वस्त्र धारे जेह, ते छे योग्य इच्छाकारने. १३.
३सूत्रस्थ सम्यग्द्रष्टियुत जे जीव छोडे कर्मने,
४‘इच्छामि’योग्य ५पदस्थ ते परलोकगत सुखने लहे. १४.
पण आत्मने इच्छ्या विना धर्मो अशेष करे भले,
तोपण लहे नहि सिद्धिने, भवमां भमे — आगम कहे. १५.
आ कारणे ते आत्मनी त्रिविधे तमे श्रद्धा करो,
ते आत्मने जाणो प्रयत्ने, मुक्तिने जेथी वरो. १६.
रे! होय नहि ६बालाग्रनी अणीमात्र परिग्रह साधुने;
करपात्रमां परदत्त भोजन एक स्थान विषे करे. १७.
जन्म्या प्रमाणे रूप, ७तलतुषमात्र करमां नव ग्रहे,
थोडुंघणुं पण जो ग्रहे तो प्राप्त थाय निगोदने. १८.
रे! होय बहु वा अल्प परिग्रह साधुने जेना मते,
ते निंद्य छे; जिनवचनमां मुनि निष्परिग्रह होय छे. १९.
त्रण गुप्ति, पंच महाव्रते जे युक्त, संयत तेह छे;
निर्ग्रंथ मुक्तिमार्ग छे ते; ते खरेखर वंद्य छे. २०.
१. शक्तिशत = सेंकडो शक्तिओ.
२. अवशेष = बाकीना (अर्थात् मुनि सिवायना).
३. सूत्रस्थ = शास्त्रोनो जाणनार अने यथाशक्ति तदनुसार वर्तनार.
४. ‘इच्छामि’योग्य = इच्छाकारने योग्य. ५.पदस्थ = प्रतिमाधारी.
६. बालाग्र = वाळनी टोच. ७. तलतुषमात्र = तलना फोतरा जेटलुं पण.
अष्टप्राभृत-सूत्रप्राभृत ]
[ १०९