श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
सम्यक्त्व-दर्शन-ज्ञान-तप-वीर्याचरण आत्मा विषे,
पवने सहित १पावक समान, २दहे ३पुरातन कर्मने. ३४.
४विजितेन्द्रि विषयविरक्त थई, धरीने विनय-तप-शीलने,
५धीरा ६दही वसु कर्म, शिवगतिप्राप्त सिद्धप्रभु बने. ३५.
जे श्रमण केरुं जन्मतरु लावण्य-शीलसमृद्ध छे,
ते शीलधर छे, छे महात्मा, लोकमां गुण विस्तरे. ३६.
द्रगशुद्धि, ज्ञान, समाधि, ध्यान स्वशक्ति-आश्रित होय छे,
सम्यक्त्वथी जीवो लहे छे ७बोधिने जिनशासने. ३७.
जिनवचननो ग्रही सार, विषयविरक्त धीर तपोधनो,
करी स्नान ८शीलसलिलथी, सुख सिद्धिनुं पामे अहो! ३८.
९आराधनापरिणत सरव गुणथी करे १०कृश कर्मने,
सुखदुखरहित ११मनशुद्ध ते क्षेपे करमरूप धूळने. ३९.
अर्हंतमां शुभ भक्ति श्रद्धाशुद्धियुत सम्यक्त्व छे,
ने शील विषयविरागता छे; ज्ञान बीजुं कयुं हवे? ४०.
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१. पावक = अग्नि.२. दहे = बाळे.
३. पुरातन = जूनां.४. विजितेन्द्रि = जितेन्द्रिय.
५. धीरा = धीर पुरुषो.६. दही वसु कर्म = आठ कर्मने बाळीने.
७. बोधि = रत्नत्रयपरिणति.
८. शीलसलिल = शीलरूपी जळ.
९. आराधनापरिणत = आराधनारूपे परिणमेला पुरुषो.
१०. कृश = नबळां; पातळां; क्षीण.
११. मनशुद्ध = शुद्ध मनवाळा (अर्थात् शुद्ध परिणतिवाळा).
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[ शास्त्र-स्वाध्याय