Shastra Swadhyay-Gujarati (Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


Page 20 of 214
PDF/HTML Page 32 of 226

 

background image
श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
सेवे छतां नहि सेवतो, अणसेवतो सेवक बने,
प्रकरण तणी चेष्टा करे पण प्राकरण ज्यम नहि ठरे. १९७.
कर्मो तणो जे विविध उदयविपाक जिनवर वर्णव्यो,
ते मुज स्वभावो छे नहीं, हुं एक ज्ञायकभाव छुं. १९८.
पुद्गलकरमरूप रागनो ज विपाकरूप छे उदय आ,
आ छे नहीं मुज भाव, निश्चय एक ज्ञायकभाव छुं. १९९.
सुद्रष्टि ए रीत आत्मने ज्ञायकस्वभाव ज जाणतो,
ने उदय कर्मविपाकरूप ते तत्त्वज्ञायक छोडतो. २००.
अणुमात्र पण रागादिनो सद्भाव वर्ते जेहने,
ते सर्वआगमधर भले पण जाणतो नहि आत्मने; २०१.
नहि जाणतो ज्यां आत्मने ज, अनात्म पण नहि जाणतो,
ते केम होय सुद्रष्टि जे जीव-अजीवने नहि जाणतो? २०२.
जीवमां अपदभूत द्रव्यभावो छोडीने ग्रह तुं यथा,
स्थिर, नियत, एक ज भाव जेह स्वभावरूप उपलभ्य आ. २०३.
मति, श्रुत, अवधि, मनः, केवल तेह पद एक ज खरे,
आ ज्ञानपद परमार्थ छे जे पामी जीव मुक्ति लहे. २०४.
बहु लोक ज्ञानगुणे रहित आ पद नहीं पामी शके;
रे! ग्रहण कर तुं नियत आ, जो कर्ममोक्षेच्छा तने. २०५.
आमां सदा प्रीतिवंत बन, आमां सदा संतुष्ट ने
आनाथी बन तुं तृप्त, तुजने सुख अहो! उत्तम थशे. २०६.
‘परद्रव्य आ मुज द्रव्य’ एवुं कोण ज्ञानी कहे अरे!
निज आत्मने निजनो परिग्रह जाणतो जे निश्चये? २०७.
२० ]
[ शास्त्र-स्वाध्याय