श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
जे भावमां प्रणमे दरव, ते काळ तन्मय ते कह्युं;
जीवद्रव्य तेथी धर्ममां प्रणमेल धर्म ज जाणवुं. ८.
शुभ के अशुभमां प्रणमतां शुभ के अशुभ आत्मा बने,
शुद्धे प्रणमतां शुद्ध, परिणामस्वभावी होईने. ९.
परिणाम विण न पदार्थ, ने न पदार्थ विण परिणाम छे;
गुण-द्रव्य-पर्ययस्थित ने अस्तित्वसिद्ध पदार्थ छे. १०.
जो धर्मपरिणतस्वरूप जीव शुद्धोपयोगी होय तो
ते पामतो निर्वाणसुख, ने स्वर्गसुख शुभयुक्त जो. ११.
अशुभोदये आत्मा कुनर, तिर्यंच ने नारकपणे
नित्ये सहस्र दुःखे पीडित, संसारमां अति अति भमे. १२.
अत्यंत, आत्मोत्पन्न, विषयातीत, अनुप, अनंत ने
विच्छेदहीन छे सुख अहो! शुद्धोपयोगप्रसिद्धने. १३.
सुविदितसूत्रपदार्थ, संयमतप सहित, वीतराग ने
सुखदुःखमां सम श्रमणने शुद्धोपयोग जिनो कहे. १४.
जे उपयोगविशुद्ध ते मोहादिघातिरज थकी
स्वयमेव रहित थयो थको ज्ञेयान्तने पामे सही. १५.
सर्वज्ञ, लब्धस्वभाव ने त्रिजगेन्द्रपूजित ए रीते
स्वयमेव जीव थयो थको तेने स्वयंभू जिनो कहे. १६.
व्ययहीन छे उत्पाद ने उत्पादहीन विनाश छे,
तेने ज वळी उत्पादध्रौव्यविनाशनो समवाय छे. १७.
उत्पाद तेम विनाश छे सौ कोई वस्तुमात्रने,
वळी कोई पर्ययथी दरेक पदार्थ छे सद्भूत खरे. १८.
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