श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
प्रक्षीणघातिकर्म, अनहदवीर्य, अधिकप्रकाश ने
इन्द्रिय-अतीत थयेल आत्मा ज्ञानसौख्ये परिणमे. १९.
कंई देहगत नथी सुख के नथी दुःख केवळज्ञानीने,
जेथी अतीन्द्रियता थई ते कारणे ए जाणजे. २०.
प्रत्यक्ष छे सौ द्रव्यपर्यय ज्ञान-परिणमनारने;
जाणे नहीं ते तेमने अवग्रह-ईहादि क्रिया वडे. २१.
न परोक्ष कंई पण सर्वतः सर्वाक्षगुणसमृद्धने,
इन्द्रिय-अतीत सदैव ने स्वयमेव ज्ञान थयेलने. २२.
जीवद्रव्य ज्ञानप्रमाण भाख्युं, ज्ञान ज्ञेयप्रमाण छे;
ने ज्ञेय लोकालोक तेथी सर्वगत ए ज्ञान छे. २३.
जीवद्रव्य ज्ञानप्रमाण नहि — ए मान्यता छे जेहने,
तेना मते जीव ज्ञानथी हीन के अधिक अवश्य छे. २४.
जो हीन आत्मा होय, नव जाणे अचेतन ज्ञान ए,
ने अधिक ज्ञानथी होय तो वण ज्ञान क्यम जाणे अरे? २५.
छे सर्वगत जिनवर अने सौ अर्थ जिनवरप्राप्त छे,
जिन ज्ञानमय ने सर्व अर्थो विषय जिनना होईने. २६.
छे ज्ञान आत्मा जिनमते; आत्मा विना नहि ज्ञान छे,
ते कारणे छे ज्ञान जीव, जीव ज्ञान छे वा अन्य छे. २७.
छे ‘ज्ञानी’ ज्ञानस्वभाव, अर्थो ज्ञेयरूप छे ‘ज्ञानी’ना,
ज्यम रूप छे नेत्रो तणां, नहि वर्तता अन्योन्यमां. २८.
ज्ञेये प्रविष्ट न, अणप्रविष्ट न, जाणतो जग सर्वने
नित्ये अतीन्द्रिय आतमा, ज्यम नेत्र जाणे रूपने. २९.
श्री प्रवचनसार-पद्यानुवाद ]
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