श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
ज्यम दूधमां स्थित इन्द्रनीलमणि स्वकीय प्रभा वडे
दूधने विषे व्यापी रहे, त्यम ज्ञान पण अर्थो विषे. ३०.
नव होय अर्थो ज्ञानमां, तो ज्ञान सौ-गत पण नहीं,
ने सर्वगत छे ज्ञान तो क्यम ज्ञानस्थित अर्थो नहीं? ३१.
प्रभुकेवळी न ग्रहे, न छोडे, पररूपे नव परिणमे;
देखे अने जाणे निःशेषे सर्वतः ते सर्वने. ३२.
श्रुतज्ञानथी जाणे खरे ज्ञायकस्वभावी आत्मने,
ॠषिओ प्रकाशक लोकना श्रुतकेवळी तेने कहे. ३३.
पुद्गलस्वरूप वचनोथी जिन-उपदिष्ट जे ते सूत्र छे,
छे ज्ञप्ति तेनी ज्ञान, तेने सूत्रनी ज्ञप्ति कहे. ३४.
जे जाणतो ते ज्ञान, नहि जीव ज्ञानथी ज्ञायक बने;
पोते प्रणमतो ज्ञानरूप, ने ज्ञानस्थित सौ अर्थ छे. ३५.
छे ज्ञान तेथी जीव, ज्ञेय त्रिधा कहेलुं द्रव्य छे;
ए द्रव्य पर ने आतमा, परिणामसंयुत जेह छे. ३६.
ते द्रव्यना सद्भूत – असद्भूत पर्ययो सौ वर्तता,
तत्काळना पर्याय जेम, विशेषपूर्वक ज्ञानमां. ३७.
जे पर्ययो अणजात छे, वळी जन्मीने प्रविनष्ट जे,
ते सौ असद्भूत पर्ययो पण ज्ञानमां प्रत्यक्ष छे. ३८.
ज्ञाने अजात-विनष्ट पर्यायो तणी प्रत्यक्षता
नव होय जो, तो ज्ञानने ए ‘दिव्य’ कोण कहे भला? ३९.
ईहादिपूर्वक जाणता जे अक्षपतित पदार्थने,
तेने परोक्ष पदार्थ जाणवुं शक्य ना — जिनजी कहे. ४०.
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[ शास्त्र-स्वाध्याय