श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
ऊपजे दरवनो अन्य पर्यय, अन्य को विणसे वळी,
पण द्रव्य तो नथी नष्ट के उत्पन्न द्रव्य नथी तहीं. १०३.
अविशिष्टसत्त्व स्वयं दरव गुणथी गुणांतर परिणमे,
तेथी वळी द्रव्य ज कह्या छे सर्वगुणपर्यायने. १०४.
जो द्रव्य होय न सत्, ठरे ज असत्, बने क्यम द्रव्य ए?
वा भिन्न ठरतुं सत्त्वथी! तेथी स्वयं ते सत्त्व छे. १०५.
जिन वीरनो उपदेश एम — पृथक्त्व भिन्नप्रदेशता,
अन्यत्व जाण अतत्पणुं; नहि ते-पणे ते एक क्यां? १०६.
‘सत् द्रव्य’, ‘सत् पर्याय’, ‘सत्गुण’ — सत्त्वनो विस्तार छे;
नथी ते-पणे अन्योन्य तेह अतत्पणुं ज्ञातव्य छे. १०७.
स्वरूपे नथी जे द्रव्य ते गुण, गुण ते नहि द्रव्य छे,
— आने अतत्पणुं जाणवुं, न अभावने; भाख्युं जिने. १०८.
परिणाम द्रव्यस्वभाव जे, ते गुण ‘सत्’-अविशिष्ट छे;
‘द्रव्यो स्वभावे स्थित सत् छे’ — ए ज आ उपदेश छे. १०९.
पर्याय के गुण एवुं कोई न द्रव्य विण विश्वे दीसे;
द्रव्यत्व छे वळी भाव; तेथी द्रव्य पोते सत्त्व छे. ११०.
आवुं दरव द्रव्यार्थ-पर्यायार्थथी निजभावमां
सद्भाव-अणसद्भावयुत उत्पादने पामे सदा. १११.
जीव परिणमे तेथी नरादिक ए थशे; पण ते-रूपे
शुं छोडतो द्रव्यत्वने? नहि छोडतो क्यम अन्य ए? ११२.
मानव नथी सुर, सुर पण नहि मनुज के नहि सिद्ध छे;
ए रीत नहि होतो थको क्यम ते अनन्यपणुं धरे? ११३.
श्री प्रवचनसार-पद्यानुवाद ]
[ ५१