श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
जे चार प्राणे जीवतो पूर्वे, जीवे छे, जीवशे,
ते जीव छे; पण प्राण तो पुद्गलदरवनिष्पन्न छे. १४७.
मोहादिकर्मनिबंधथी संबंध पामी प्राणनो,
जीव कर्मफळ-उपभोग करतां, बंध पामे कर्मनो. १४८.
जीव मोह-द्वेष वडे करे बाधा जीवोना प्राणने,
तो बंध ज्ञानावरण-आदिक कर्मनो ते थाय छे. १४९.
कर्मे मलिन जीव त्यां लगी प्राणो धरे छे फरी फरी,
ममता शरीरप्रधान विषये ज्यां लगी छोडे नहीं. १५०.
करी इन्द्रियादिक-विजय, ध्यावे आत्मने — उपयोगने,
ते कर्मथी रंजित नहीं; क्यम प्राण तेने अनुसरे? १५१.
अस्तित्वनिश्चित अर्थनो को अन्य अर्थे ऊपजतो
जे अर्थ ते पर्याय छे, ज्यां भेद संस्थानादिनो. १५२.
तिर्यंच, नारक, देव, नर — ए नामकर्मोदय वडे
छे जीवना पर्याय, जेह विशिष्ट संस्थानादिके. १५३.
अस्तित्वथी निष्पन्न द्रव्यस्वभावने त्रिविकल्पने
जे जाणतो, ते आतमा नहि मोह परद्रव्ये लहे. १५४.
छे आतमा उपयोगरूप, उपयोग दर्शन-ज्ञान छे;
उपयोग ए आत्मा तणो शुभ वा अशुभरूप होय छे. १५५.
उपयोग जो शुभ होय, संचय थाय पुण्य तणो तहीं,
ने पापसंचय अशुभथी; ज्यां उभय नहि, संचय नहीं. १५६.
जाणे जिनोने जेह, श्रद्धे सिद्धने, अणगारने,
जे सानुकंप जीवो प्रति, उपयोग छे शुभ तेहने. १५७.
श्री प्रवचनसार-पद्यानुवाद ]
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