Shastra Swadhyay-Gujarati (Devanagari transliteration).

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श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
कुविचार-संगति-श्रवणयुत, विषये कषाये मग्न जे,
जे उग्र ने उन्मार्गपर, उपयोग तेह अशुभ छे. १५८.
मध्यस्थ परद्रव्ये थतो, अशुभोपयोग रहित ने
शुभमां अयुक्त, हुं ध्याउं छुं निज आत्मने ज्ञानात्मने. १५९.
हुं देह नहि, वाणी न, मन नहि, तेमनुं कारण नहीं,
कर्ता न, कारयिता न, अनुमंता हुं कर्तानो नहीं. १६०.
मन, वाणी तेम ज देह पुद्गलद्रव्यरूप निर्दिष्ट छे;
ने तेह पुद्गलद्रव्य बहु परमाणुओनो पिंड छे. १६१.
हुं पौद्गलिक नथी, पुद्गलो में पिंडरूप कर्यां नथी;
तेथी नथी हुं देह वा ते देहनो कर्ता नथी. १६२.
परमाणु जे अप्रदेश, तेम प्रदेशमात्र, अशब्द छे,
ते स्निग्ध रूक्ष बनी प्रदेशद्वयादिवत्त्व अनुभवे. १६३.
एकांशथी आरंभी ज्यां अविभाग अंश अनंत छे,
स्निग्धत्व वा रूक्षत्व ए परिणामथी परमाणुने. १६४.
हो स्निग्ध अथवा रूक्ष अणु-परिणाम, सम वा विषम हो,
बंधाय जो गुणद्वय अधिक; नहीं बंध होय जघन्यनो. १६५.
चतुरंश को स्निग्धाणु सह द्वय-अंशमय स्निग्धाणुनो;
पंचांशी अणु सह बंध थाय त्रयांशमय रूक्षाणुनो. १६६.
स्कंधो प्रदेशद्वयादियुत, स्थूल-सूक्ष्म ने साकार जे,
ते पृथ्वी-वायु-तेज-जळ परिणामथी निज थाय छे. १६७.
अवगाढ गाढ भरेल छे सर्वत्र पुद्गलकायथी
आ लोक बादर-सूक्ष्मथी, कर्मत्वयोग्य-अयोग्यथी. १६८.
५६ ]
[ शास्त्र-स्वाध्याय