श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
परिणामथी छे बंध, राग-विमोह-द्वेषथी युक्त जे;
छे मोह-द्वेष अशुभ, राग अशुभ वा शुभ होय छे. १८०.
पर मांही शुभ परिणाम पुण्य, अशुभ परमां पाप छे;
निजद्रव्यगत परिणाम समये दुःखक्षयनो हेतु छे. १८१.
स्थावर अने त्रस पृथ्वीआदिक जीवकाय कहेल जे,
ते जीवथी छे अन्य तेम ज जीव तेथी अन्य छे. १८२.
परने स्वने नहि जाणतो ए रीत पामी स्वभावने,
ते ‘आ हुं, आ मुज’ एम अध्यवसान मोह थकी करे. १८३.
निज भाव करतो जीव छे कर्ता खरे निज भावनो;
पण ते नथी कर्ता सकल पुद्गलदरवमय भावनो. १८४.
जीव सर्व काळे पुद्गलोनी मध्यमां वर्ते भले,
पण नव ग्रहे, न तजे, करे नहि जीव पुद्गलकर्मने. १८५.
ते हाल द्रव्यजनित निज परिणामनो कर्ता बने,
तेथी ग्रहाय अने कदापि मुकाय छे कर्मो वडे. १८६.
जीव रागद्वेषथी युक्त ज्यारे परिणमे शुभ-अशुभमां,
ज्ञानावरणइत्यादिभावे कर्मधूलि प्रवेश त्यां. १८७.
सप्रदेश जीव समये कषायित मोहरागादि वडे,
संबंध पामी कर्मरजनो, बंधरूप कथाय छे. १८८.
— आ जीव केरा बंधनो संक्षेप निश्चय भाखियो
अर्हंतदेवे योगीने; व्यवहार अन्य रीते कह्यो. १८९.
‘हुं आ अने आ मारुं’ ए ममता न देह-धने तजे,
ते छोडी जीव श्रामण्यने उन्मार्गनो आश्रय करे. १९०.
५८ ]
[ शास्त्र-स्वाध्याय