श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
सर्वार्थप्राप्त, सविश्वरूप, अनंतपर्ययवंत छे,
सत्ता जनम-लय-ध्रौव्यमय छे, एक छे, सविपक्ष छे. ८.
ते ते विविध सद्भावपर्ययने द्रवे — व्यापे — लहे
तेने कहे छे द्रव्य, जे सत्ता थकी नहि अन्य छे. ९.
छे सत्त्व लक्षण जेहनुं, उत्पादव्ययध्रुवयुक्त जे,
गुणपर्ययाश्रय जेह, तेने द्रव्य सर्वज्ञो कहे. १०.
नहि द्रव्यनो उत्पाद अथवा नाश नहि, सद्भाव छे;
तेना ज जे पर्याय ते उत्पाद-लय-ध्रुवता करे. ११.
पर्यायविरहित द्रव्य नहि, नहि द्रव्यहीन पर्याय छे,
पर्याय तेम ज द्रव्य केरी अनन्यता श्रमणो कहे. १२.
नहि द्रव्य विण गुण होय, गुण विण द्रव्य पण नहि होय छे;
तेथी गुणो ने द्रव्य केरी अभिन्नता निर्दिष्ट छे. १३.
छे अस्ति, नास्ति, उभय तेम अवाच्य आदिक भंग जे,
आदेशवश ते सात भंगे युक्त सर्वे द्रव्य छे. १४.
नहि ‘भाव’ केरो नाश होय, ‘अभाव’नो उत्पाद ना;
‘भावो’ करे छे नाश ने उत्पाद गुणपर्यायमां. १५.
जीवादि सौ छे ‘भाव’, जीवगुण चेतना उपयोग छे;
जीवपर्ययो तिर्यंच-नारक-देव-मनुज अनेक छे. १६.
मनुजत्वथी व्यय पामीने देवादि देही थाय छे;
त्यां जीवभाव न नाश पामे, अन्य नहि उद्भव लहे. १७.
जन्मे मरे छे ते ज, तोपण नाश-उद्भव नव लहे;
सुर-मानवादिक पर्ययो उत्पन्न ने लय थाय छे. १८.
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