श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
त्यम ज्ञानदर्शन जीवनियत अनन्य रहीने जीवथी,
अन्यत्वना कर्ता बने व्यपदेशथी — न स्वभावथी. ५२.
जीवो अनादि-अनंत, सांत, अनंत छे जीवभावथी,
सद्भावथी नहि अंत होय; प्रधानता गुण पांचथी. ५३.
ए रीत सत्-व्यय ने असत्-उत्पाद जीवने होय छे,
— भाख्युं जिने, जे पूर्व-अपर विरुद्ध पण अविरुद्ध छे. ५४.
तिर्यंच-नारक-देव-मानव नामनी छे प्रकृति जे,
ते व्यय करे सत् भावनो, उत्पाद असत् तणो करे. ५५.
परिणाम, उदय, क्षयोपशम, उपशम, क्षये संयुक्त जे,
ते पांच जीवगुण जाणवा; बहु भेदमां विस्तीर्ण छे. ५६.
पुद्गलकरमने वेदतां आत्मा करे जे भावने,
ते भावनो ते जीव छे कर्ता — कह्युं जिनशासने. ५७.
पुद्गलकरम विण जीवने उपशम, उदय, क्षायिक अने
क्षायोपशमिक न होय, तेथी कर्मकृत ए भाव छे. ५८.
जो भावकर्ता कर्म, तो शुं कर्मकर्ता जीव छे?
जीव तो कदी करतो नथी निज भाव विण कंई अन्यने. ५९.
रे! भाव कर्मनिमित्त छे ने कर्म भावनिमित्त छे,
अन्योन्य नहि कर्ता खरे; कर्ता विना नहि थाय छे. ६०.
निज भाव करतो आतमा कर्ता खरे निज भावनो,
कर्ता न पुद्गलकर्मनो; — उपदेश जिननो जाणवो. ६१.
रे! कर्म आपस्वभावथी निज कर्मपर्ययने करे,
आत्माय कर्मस्वभावरूप निज भावथी निजने करे. ६२.
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