श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
जो कर्म कर्म करे अने आत्मा करे बस आत्मने,
क्यम कर्म फळ दे जीवने ? क्यम जीव ते फळ भोगवे? ६३.
अवगाढ गाढ भरेल छे सर्वत्र पुद्गलकायथी
आ लोक बादर-सूक्ष्मथी, विधविध अनंतानंतथी. ६४.
आत्मा करे निज भाव ज्यां, त्यां पुद्गलो निज भावथी
कर्मत्वरूपे परिणमे अन्योन्य-अवगाहित थई. ६५.
ज्यम स्कंधरचना बहुविधा देखाय छे पुद्गल तणी
परथी अकृत, ते रीत जाणो विविधता कर्मो तणी. ६६.
जीव-पुद्गलो अन्योन्यमां अवगाह ग्रहीने बद्ध छे;
काळे वियोग लहे तदा सुखदुःख आपे – भोगवे. ६७.
तेथी करम, जीवभावथी संयुक्त, कर्ता जाणवुं;
भोक्तापणुं तो जीवने चेतकपणे तत्फळ तणुं. ६८.
कर्ता अने भोक्ता थतो ए रीत निज कर्मो वडे
जीव मोहथी आच्छन्न सांत अनंत संसारे भमे. ६९.
जिनवचनथी लही मार्ग जे, उपशांतक्षीणमोही बने,
ज्ञानानुमार्ग विषे चरे, ते धीर शिवपुरने वरे. ७०.
एक ज महात्मा ते द्विभेद अने त्रिलक्षण उक्त छे,
चउभ्रमणयुत, पंचाग्रगुणपरधान जीव कहेल छे; ७१.
उपयोगी षट-अपक्रमसहित छे, सप्तभंगीसत्त्व छे,
जीव अष्ट-आश्रय, नव-अरथ, दशस्थानगत भाखेल छे. ७२.
प्रकृति-स्थिति-परदेश-अनुभवबंधथी परिमुक्तने
गति होय ऊंचे; शेषने विदिशा तजी गति होय छे. ७३.
श्री पंचास्तिकायसंग्रह-पद्यानुवाद ]
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