श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
ज्यम जगतमां जळ मीनने अनुग्रह करे छे गमनमां,
त्यम धर्म पण अनुग्रह करे जीव-पुद्गलोने गमनमां. ८५.
ज्यम धर्मनामक द्रव्य तेम अधर्मनामक द्रव्य छे;
पण द्रव्य आ छे पृथ्वी माफक हेतु थितिपरिणमितने. ८६.
धर्माधरम होवाथी लोक-अलोक ने स्थितिगति बने;
ते उभय भिन्न-अभिन्न छे ने सकळलोकप्रमाण छे. ८७.
धर्मास्ति गमन करे नहीं, न करावतो परद्रव्यने;
जीव-पुद्गलोना गतिप्रसार तणो उदासीन हेतु छे. ८८.
रे! जेमने गति होय छे, तेओ ज वळी स्थिर थाय छे;
ते सर्व निज परिणामथी ज करे गतिस्थितिभावने. ८९.
जे लोकमां जीव-पुद्गलोने, शेष द्रव्य समस्तने
अवकाश दे छे पूर्ण, ते आकाशनामक द्रव्य छे. ९०.
जीव-पुद्गलादिक शेष द्रव्य अनन्य जाणो लोकथी;
नभ अंतशून्य अनन्य तेम ज अन्य छे ए लोकथी. ९१.
अवकाशदायक आभ गति-स्थितिहेतुता पण जो धरे,
तो ऊर्ध्वगतिपरधान सिद्धो केम तेमां स्थिति लहे? ९२.
भाखी जिनोए लोकना अग्रे स्थिति सिद्धो तणी,
ते कारणे जाणो — गतिस्थिति आभमां होती नथी. ९३.
नभ होय जो गतिहेतु ने स्थितिहेतु पुद्गल-जीवने,
तो हानि थाय अलोकनी, लोकान्त पामे वृद्धिने. ९४.
तेथी गतिस्थितिहेतुओ धर्माधरम छे, नभ नहीं;
भाख्युं जिनोए आम लोकस्वभावना श्रोता प्रति. ९५.
श्री पंचास्तिकायसंग्रह-पद्यानुवाद ]
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