श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
धर्माधरम-नभने समानप्रमाणयुत अपृथक्त्वथी,
वळी भिन्नभिन्न विशेषथी, एकत्व ने अन्यत्व छे. ९६.
आत्मा अने आकाश, धर्म, अधर्म, काळ अमूर्त छे,
छे मूर्त पुद्गलद्रव्य; तेमां जीव छे चेतन खरे. ९७.
जीव-पुद्गलो सहभूत छे सक्रिय, निष्क्रिय शेष छे;
छे काळ पुद्गलने करण, पुद्गल करण छे जीवने. ९८.
छे जीवने जे विषय इन्द्रियग्राह्य, ते सौ मूर्त छे;
बाकी बधुंय अमूर्त छे; मन जाणतुं ते उभयने. ९९.
परिणामभव छे काळ, काळपदार्थभव परिणाम छे;
— आ छे स्वभावो उभयना; क्षणभंगी ने ध्रुव काळ छे. १००.
छे ‘काळ’ संज्ञा सत्प्ररूपक तेथी काळ सुनित्य छे;
उत्पन्नध्वंसी अन्य जे ते दीर्घस्थायी पण ठरे. १०१.
आ जीव, पुद्गल, काळ, धर्म, अधर्म तेम ज नभ विषे
छे ‘द्रव्य’संज्ञा सर्वने, कायत्व छे नहि काळने. १०२.
ए रीत प्रवचनसाररूप ‘पंचास्तिसंग्रह’ जाणीने
जे जीव छोडे रागद्वेष, लहे सकळदुखमोक्षने. १०३.
आ अर्थ जाणी, अनुगमन-उद्यम करी, हणी मोहने,
प्रशमावी रागद्वेष, जीव उत्तर-पूरव विरहित बने. १०४.
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[ शास्त्र-स्वाध्याय