श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
२. नवपदार्थपूर्वक मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
शिरसा नमी अपुनर्जनमना हेतु श्री महावीरने,
भाखुं पदार्थविकल्प तेम ज मोक्ष केरा मार्गने. १०५.
सम्यक्त्वज्ञान समेत चारित रागद्वेषविहीन जे,
ते होय छे निर्वाणमारग लब्धबुद्धि भव्यने. १०६.
‘भावो’ तणी श्रद्धा सुदर्शन, बोध तेनो ज्ञान छे,
वधु रूढ मार्ग थतां विषयमां साम्य ते चारित्र छे. १०७.
बे भाव — जीव अजीव, तद्गत पुण्य तेम ज पाप ने
आसरव, संवर, निर्जरा, वळी बंध, मोक्ष — पदार्थ छे. १०८.
जीवो द्विविध — संसारी, सिद्धो; चेतनात्मक उभय छे;
उपयोगलक्षण उभय; एक सदेह, एक अदेह छे. १०९.
भू-जल-अनल-वायु-वनस्पतिकाय जीवसहित छे;
बहु काय ते अतिमोहसंयुत स्पर्श आपे जीवने. ११०.
त्यां जीव त्रण स्थावरतनु, त्रस जीव अग्नि-समीरना;
ए सर्व मनपरिणामविरहित एक-इन्द्रिय जाणवा. १११.
आ पृथ्वीकायिक आदि जीवनिकाय पांच प्रकारना,
सघळाय मनपरिणामविरहित जीव एकेन्द्रिय कह्या. ११२.
जेवा जीवो अंडस्थ, मूर्छावस्थ वा गर्भस्थ छे;
तेवा बधा आ पंचविध एकेन्द्रि जीवो जाणजे. ११३.
शंबूक, छीपो, मातृवाहो, शंख, कृमि पग-वगरना
— जे जाणता रसस्पर्शने, ते जीव द्वीन्द्रिय जाणवा. ११४.
श्री पंचास्तिकायसंग्रह-पद्यानुवाद ]
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