९६ ][ श्री जिनेन्द्र
ये गुन सुन मैं शरने आयो
मोही मोह दुःख देत घने रे....
ता मद भानन स्व – पर पिछानन
तुम बिन आन न कारण है रे...जगदा० २
तुम पद शरन ग्रही जिननें ते
जामन – जरा – मरन निरवेरे....
तुमतें विमुख भये शठ तिन को,
चहुं गति विपत महाविधि पेरे...जगदा० ३
तुम रे अमित सुगुन ज्ञानादिक
सतत मुदित गनराज उकेरे....
लहत न मित्त मैं पतित कहों किम,
किन शिशुगन गिरिराज उखेरे....जगदा० ४
तुम बिन राग दोष, दर्पन ज्यों
निज निज भाव फलें तिन केरे...
तुम हो सहज जगत उपकारी
शिवपद सारथवाह भले रे...जगदा० ५
तुम दयाल बेहाल बहुत हम,
काल कराल व्याल चिर घेरे....
भाल नाय गुनमाल जपूं तुम
हे दयाल दुःख टाल सबेरे...जगदा० ६
तुम बहु पतित सु पावन कीने
क्यों न हरो भव संकट मेरे....