१४ ][ श्री जिनेन्द्र
बार हिं बार पुकारतु हों
जनकी विनति सुनिये जिनराई.... ४
मैं इस ही भवकानन में
भटक्यो चिरकाल सुहाल गमाइ,
किंचित् ही तिलसे सुखको
बहु भांति उपाय करे ललचाई;
चार गतें चिर में भटक्यो
जहं मेरु समान महा दुःखदाई,
बार हिं बार पुकारतु हों
जनकी विनति सुनिये जिनराई.... ५
जे दुःख मैं भुगते भव के
तिनके वरणे कहुं पार न पाई,
काल अनादि न आदि भयो
तहं में दुःखभाजन हो अघमांही;
मात – पिता तुम हो जग के
तुम छांडि फिराद करुं कहं जाई,
बार हिं बार पुकारतु हों
जनकी विनति सुनिये जिनराई.... ६
सो तुमसों सब दुःख कहों
प्रभु जानत हो तुम पीड हमारी,
मैं तुम को सतसंग कियो
दिन हू दिन आवत शरन तिहारी;