१६ ][ श्री जिनेन्द्र
न्याय न अंत कर्ये हमरो,
न मिली हमको तुमसी ठकुराई;
संतन राखि करो अपने ढिग
दुष्टनि देहु निकास बहाई;
बार हिं बार पुकारतु हों
जनकी विनति सुनिये जिनराई.... १०
दुष्टनकी जु कुसंगति में हमको
कछु जान परी न निकाई,
सेवक साहब को दुविधा न रहे
प्रभुजी करिये जु भलाई,
फेर नमों जु करो अरजी जस
जाहिर जान परे जगताई,
बार हिं बार पुकारतु हों
जनकी विनति सुनिये जिनराई.... ११
यह विनति प्रभु के शरणागति
जे नर चित्त लगाय करेंगे,
जे जगमें अपराध करें अद्य
ते क्षणमात्र भरेमें हरेंगे;
जे गति नीच निवास सदा
अवतार सुधी स्वर लोक धरेंगे,
देवीदास कहे क्रमसों पुनि ते
भवसागर पार तरेंगे... १२
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