१८ ][ श्री जिनेन्द्र
वदि जेठ दुवादसीजी, तप देखी रवरा रिषिजी,
पद पूजि नये नसि पाप सबे गये जी. ५
षष्टम करी पूरो जी, भोजन हित सूरो जी,
पूर धर्म सनूरो आवत देखिकें जी;
नव भक्ति थकी पयजी, विशाख तहां दय जी,
मणिवृष्टि अखय करी सुरगण पेखिकें जी. ६
धरि ध्यान शुक्ल तबजी, चउ घाति हने जबजी,
सुर आय मिले सब ज्ञान कल्याण ही जी;
वदी चैत अमावसीजी, जखी भुक्ति तुहे वसिजी,
समवादी रच्यो तसु उपमा भी नहि जी. ७
समवादी जिते भवि जी, सुनि धर्म तीरे सबजी,
प्रभु आयु रही जब मास तणी तबे जी;
संमेद पधारे जी, सब जोग संघारे जी,
समभाव विथारी वरी शिवतिय जबे जी. ८
वसु गुण जुत भूषित जी, भव छारि वसे तित जी;
सुख मगन भये जित मावस चैतकी जी;
सुर सब मिलि आयेजी, शिव मंगल गायेजी,
बहु पुण्य उपाय चले तुम गुणतकी जी. ९
गुण वृन्द तुम्हारे जी, बुध कन उचारे जी,
गणदेव निहारे पै वच ना कहे जी;