२० ][ श्री जिनेन्द्र
मेरूपै अभिषेक कराया इन्द्रने तो क्या हुआ!
यदि ‘इन्द्र’के मदको मिटाया आपने तो क्या हुआ!
यदि कमल को गजने हिलाया तो प्रशंसा क्या हुई!
तेरी प्रशंसा ज्ञानसें प्रभु करुं हृदबिचमें लई!... ३
अपकारियोंके साथ भी उपकार करते आप थे,
मनमें न प्रत्युपकारकी कुछ चाह रखते आप थे;
वडवाग्नि वारिधि के हृदय को है जराता नित्य ही,
पर जलधि अपनाये उसे है क्रोध कुछ करता नहीं... ४
प्रभु! स्वावलम्बनका सुपथ सबको दिखाया आपने,
द्रढ आत्मबलका मर्म भी सबको सिखाया आपने;
समता सभी के साथ धर प्रभु राह मुक्तिकी दई,
इस हेतु सेवा आपकी निश्चय मही करती रही... ५
यद्यपि अहिंसा क्रम सभीने श्रेष्ठ मत माना सही,
पर वास्तविक उसके विधानों को कभी जाना नहीं;
किस भांति स्वरूप चाहिये सच्चे अहिंसा धर्मका,
अतिशय सरल करके दिखाया आपने इस मर्मका... ६
करके कृपा यदि अवतरित होते न भू पर आप तो,
तो कैसे पाते भक्त तेरे भव समुद्र के पार को;
जित काम हो निष्काम हो अरु शांति के सुखधाम हो,
योगेश भोगोंसे रहित गुण हीन हो गुणग्राम हो... ७