२६ ][ श्री जिनेन्द्र
ताको वरनत नहीं लहत पार,
तो अंतरंग को कहे सार. १६
अनअंत गुणनिजुत करी विहार,
धरमोपदेश दे भव्य तार;
फिर जोग निरोधि अघाति हान,
सम्मेद थकी लिय मुक्ति थान. १७
वृंदावन वंदत शीश नाय,
तु जानत हो मम उर जु भाय;
तातैं का कहूं सो बार बार,
मन वांछित कारज सार सार. १८
(छंद धत्तानंद)
जय चंद जिनंदा, आनंदकंदा, भवभय भंजन राजे हैं,
रागादिक द्वंदा, हरि सब फंदा, मुक्तिमांही तिथि साजे हैं.
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नेमिनाथ – स्तुति
(चालः सामायिक वाले जी....)
त्रिभुवन गुरु स्वामीजी, करुणानिधि नामीजी,
सुनि अंतरजामी मेरी विनतीजी....१
मैं दास तिहाराजी, दुखिया बहु भाराजी,
दुःख मेटनहारा तुम जादोंपतीजी....२