६० ][ श्री जिनेन्द्र
कर्म महा रिपु जोर एक न कान करे जी;
मनमाने दुःख देही काहूसों नाहिं डरे जी. ३
कबहूं इतरनिगोद कबहूं नरक दिखावे;
सुरनर पशुगति मांहीं बहु विध नाच नचावे. ४
प्रभु इनको परसंग भवभव मांहीं बुरोजी;
जे दुःख देखे देव तुमसों नांही दुरोजी. ५
एक जनमकी बात कही न सकुं सुनि स्वामि;
तुम अनंत परजाय जानतु अंतरजामी. ६
मैं तो एक अनाथ ये मिल दुष्ट घनेरे;
कियो बहुत बेहाल सुनियो साहिब मेरे. ७
ज्ञान महा निधि लूंटी रंक निबल करी डार्यो;
इनही तुम मुज मांही हे जिन! अंतर पाड्यो. ८
पाप पुन्य मळी दोय पायनि बेडी डारी;
तन कारागृहमांही मोही दियो दुःख भारी. ९
इनको नेक बिगार में कछु नांही कियो जी;
बिन कारण जगवंद्य बहुविध वैर लियो जी. १०
अब आयो तुम पास सुन जिन सुजस तिहारो;
नीति निपुन जगराय कीजे न्याय हमारो. ११
दुष्टन देहु निकाल साधुनकों रखि लीजे;
विनवे भूधरदास, हे प्रभु ढील न कीजे. १२
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