स्तवनमाळा ][ १११
भक्तिमें जब चित्त लगाया,
चेतनमें तब चित्त ललचाया
वीतरागी देव करो हम भवसे पारा रे....२
अब तो मेरी ओर निहारो, भवसमुद्रसे नाथ उबारो,
‘सेवक’ का लो हाथ पकड मैं पाऊं किनारा रे....३
जीवनमें मैं नाथको पाऊं, वीतरागी भाव बढाऊं,
भक्तिभावसे प्रभुचरणमें जाऊं जाऊं रे. प्रभु....४
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श्री सीमंधार जिन – स्तवन
शरण हैं आज तुम्हारी, राखो लाज हमारी,
यद्यपि आप न रागी-द्वेषी, यह द्रढ निश्चय धारी;
किन्तु नाम तुम्हारा भगवन्, पूरत आश सारी....शरण.
शुद्धस्वरूप रूप लख तेरा, समवसरण बिच भारी,
आतमबोध सुबोध हुआ मन, फूला सम्यक् क्यारी....शरण.
रागादिक परपरणति छूटी छूटी ममता सारी,
विषयवासना रहित हुआ मन, निर्विकल्प अविकारी....शरण.
धन्य धन्य सीमंधर प्रभु तुम, धर्मदेशना प्यारी,
कुंदकुंद सम कहानगुरुकी, झरती प्रवचनकारी....शरण.
सफल हुए ‘सौभाग्य’ दर्श पर, जावे बलि बलिहारी,
तुम पद पंकज कभी न छूटे, येही अरज हमारी....शरण.