११२ ][ श्री जिनेन्द्र
श्री सीमंधार जिन – स्तवन
जय जय जय सब मिलकर बोलो
सीमंधर भगवान की;
विदेहक्षेत्रमें जो है राजे,
समवसरण बिच अधर विराजे,
देवदुंदुभी जहां नित बाजे,
षट् ॠतुके फल खिलते ताजे,
महिमा अति भगवान की.....१
समवसरण की शोभा भारी,
द्वादश सभा बनी जहां प्यारी,
मानस्तंभ मान-मदहारी,
है उत्तंग चहुं दिश सुखकारी,
सुर सेवा भगवान की.....२
दिव्यध्वनि प्रभुकी जहां होती,
जीव मात्रका संशय खोती,
वस्तुस्वरूप दिखाती ज्योती,
रागादिक सब कल्मष धोती,
वाणी श्री भगवान की.....३
विदेहक्षेत्रसा बना सोनगढ,
समवसरण जहां बना ललित द्रढ,
धर्मवृक्षकी जमी जहां जड,
गुरु कानजी समयसार पढ,
खोली हाट सुज्ञान की.....४