स्तवनमाळा ][ ३
जे तुम यश निज मुख उच्चारै,
ते तिहुं लोक सुजश विस्तारै;
तुम गुण गान मात्र कर प्रानी,
पावै सुगुण महासुख दानी. ६
जो चित ध्यान सलिल तुम धारा,
ते मुनि तीरथ है निरधारा;
तुम गुण हंस तुम्हीं सर वासी,
वचन जालमें ले तन फांसी. ७
जगतबंधु गुणसिंधु दयानिधि,
बीजभूत कल्याण सर्व सिद्धि;
अक्षय शिवस्वरूप श्रिय स्वामी,
पूर्ण निजानंदी विश्रामी. ८
शरणागत सर्वस्व सुहितकर,
जन्म मरण दुख आधि व्याधि हर;
संतभक्ति तुम हो अनुरागी,
निश्चे अजर अमर पद भागी. ९
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श्री जिन – स्तवन
(त्रोटक छंद)
दुखकारन द्वेष विडारन हो,
वश डारन राग निवारन हो;