१८ ][ श्री जिनेन्द्र
कदम कदम पर ज्योति तुम्हारी, अपनी छटा दिखाती है,
अन्धकार विनशाती है बिछुडों को राह लगाती है,
इसकी चमक सूर्यसे ज्यादा, करती मन उजियाली. २
भवकी नदिया इस नैया से लाखों भविजन पार लगे,
ओ नैया के खेनेवाले मुझको भी कुछ देओ जगह;
पार बसत है मुक्ति तुम्हारी कठिन ‘‘वृद्धि’’ पथवाली. ३
श्री जिन – स्तवन
(तर्ज – सावन के नजारे हैं )
दर्शन का भिखारी हूं अहो प्रभु २
नयनों की पलकों की झोली को पसारी है. १
भटका हूं कई दर पर पाया न कोई तुझसा,
दातार भला मैंने हृदय में समाई है,
यह ध्यान मगन मूरत, वीतराग सुहाई है. २
यह शांति छवी तेरी, लागत अति प्यारी,
मेरे मनको यह भाई है. ३
मेरी तृपत भई अखियां पाकर प्रभु दर्शन,
कृतकृत्य हुआ भारी. ४
भरना इस विधि नितही झोली मेरी को,
पुण्य ‘वृद्धि’ करूं स्वामी. ५
❑